यदि परीक्षाएँ न होतीं....
(1) परीक्षाएँ न होने पर आनंद ही आनंद (2) परीक्षाएँ विद्यार्थियों के ज्ञान की सूचक नहीं (4) अभिभावकों तथा परीक्षकों को राहत (4) मार्गदर्शिकाओं, कोचिंग क्लास आदि से छुटकारा (5) परीक्षाओं से बचना असंभव।]
इकाई परीक्षाओं तथा सत्रांत परीक्षाओं का सिलसिला छात्रों को चैन नहीं लेने देता कितना अच्छा होता, यदि परीक्षाएँ ही न होती सिर पर परीक्षाओं का बोझ न होता, तो बस आनंद ही आनंद रहता। मगर मान लें कि परीक्षाएँ खत्म कर दी जाएँ, तो छात्रों को प्रगति की जानकारी कैसे मिलेगी ? छात्र को अगली कक्षा में तरक्की किस आधार पर दी जाएगी?
सालभर की पढ़ाई का मूल्यांकन दो-तीन घंटे में कैसे हो सकता है? परीक्षाओं में सफल होने वाले विद्यार्थियों में भी ज्ञान शायद ही दिखाई देता है। उन्हें मिली सफलता उनके ज्ञान और बुद्धि की नहीं, उनकी रटने की शक्ति की है। आज के विद्यार्थी केवल परीक्षार्थी बन कर रह गए हैं। वे केवल परीक्षा में पास होने भर के लिए ही पढ़ते हैं। कुछ तो बिना पढ़े, नकल कर या किन्हीं अन्य उपायों से सफल हो जाते हैं। इसलिए आधुनिक परीक्षाओं को ज्ञान का मापदंड नहीं कहा जा सकता। लेकिन छात्र पढ़ाई के द्वारा जो ज्ञान प्राप्त करते हैं उसका पता बिना परीक्षा के कैसे चलेगा? परीक्षाओं को बहुत अधिक महत्त्व दिया जाता है। बच्चों की पढ़ाई के पीछे माँ-बाप की नींद हराम हो जाती है। बच्चों के भविष्य को ध्यान में रखते हुए माँ बाप खुद उन्हें पढ़ाने में लगे रहते हैं। उनके लिए यूशन की व्यवस्था करने में खूब खर्च करते हैं। यदि परीक्षाएँ न होतीं, तो अभिभावकों को बहुत राहत मिलती परीक्षकों को भी उत्तर पुस्तिकाएँ जाँचने में अपनी आँखें न फोड़नी पड़तीं। लेकिन परीक्षाओं की झंझट न होती तो भला कोई पड़ता हो क्यों ?
इसलिए परीक्षा पद्धति भले ही कुछ हद तक दोषपूर्ण हो, पर विद्यार्थी को अगली कक्षा में ले जाने के लिए उसको क्षमता तो परखनी पड़ेगी ही। इसलिए परीक्षाएँ कभी बंद नहीं हो सकतीं। परीक्षाओं के अभाव में बुद्धिमान विद्यार्थियों को क्षमता का पता कैसे लगेगा? इसलिए परीक्षाएँ आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य भी हैं।
कोणत्याही टिप्पण्या नाहीत:
टिप्पणी पोस्ट करा