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पहिली ते दहावी संपूर्ण अभ्यास

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रविवार, २९ मे, २०२२

यदि पाठशालाएँ न होतीं...

         यदि पाठशालाएँ न होतीं...



 (1) प्राचीन युग में पाठशालाएँ (2) पाठशालाएं ज्ञान की गंगोत्री (3) गुरु होते न शिष्य (4) अंतर्निहित शक्तियों का जागरण असंभव (5) नैतिक मूल्यों का विकास नहीं (6) छात्र और शिक्षकों का बोझ हल्का] 

       प्राचीन युग में पाठशालाएँ मंदिर के समान पवित्र मानी जाती थीं विद्यादान एक आध्यात्मिक अनुष्ठान था। पाठशालाओं को आश्रम भी कहा जाता था, जहाँ गुरु का आचार्य निःस्वार्थ भाव से शिष्यों को आत्मसंयम, आत्मानुशासन, मर्यादापालन आदि के पाठ पढ़ाकर उनका चरित्र निर्माण करते थे। तब पाठशालाएँ ईश्वर और परम आनंद की प्राप्ति का माध्यम थीं। इसलिए यह कल्पना बड़ी विचित्र लगता है कि यदि पाठशालाएँ न होतीं, तो क्या होता ? 

        पाठशालाएँ ज्ञान की गंगोत्री रही है, जहाँ से ज्ञान की निर्मल धाराएँ बहकर युगों युगों से मनुष्य जाति को आप्लावित करती आ रही हैं। इनके ज्ञान के प्रकाश में मनुष्य ने जीवन को राह पाई है। यदि पाठशालाएँ न होती. तो आज का मानव विकसित और सभ्य न होता वह आज भी घुमक्कड़ प्रवृत्ति का होता और यायावर की सी जिंदगी जीने को बाध्य होता ।

       यदि पाठशालाएँ न होतों तो न गुरु होते न शिष्य होते और न ही गुरु-शिष्य का अनोखा रिश्ता होता। गुरु ही ब्रह्मा हैं गुरु हो विष्णु हैं, गुरु ही महेश हैं और गुरु ही साक्षात् परब्रह्म है. इस रहस्य को दुनिया कभी नहीं जान पाती। यदि पाठशालाएँ न होतीं, तो गुरु के बिना शिष्य का मार्गदर्शन कौन करता? शिष्यों में कौन प्रतिभाशाली है और कौन मंद बुद्धि, इसका निर्णय कौन करता ? 

        यदि पाठशालाएँ न होतीं, तो विद्यार्थियों को अंतनिहित शक्तियाँ जागृत कैसे होतीं तथा उन्हें दया, करुणा, क्षमा, त्याग, सदाचार, उदारता, सत्यप्रियता जैसे मानवीय गुणों एवं नैतिक मूल्यों से संपन्न कौन बनाता? यदि पाठशालाएँ न होतीं तो कला-कौशल का विकास कैसे होता? ज्ञान-विज्ञान की उन्नति कैसे होती? संस्कृति और सभ्यता का विकास कैसे होता ? यदि पाठशालाएँ न होती तो आज समग्र विश्व महान विभूतियों की सेवाओं से वंचित रह जाता राम, कृष्ण, चाणक्य, शिवाजी, डॉ. ए. पी. जे. अब्दुल कलाम, डॉ. होमी भाभा, रवींद्रनाथ ठाकुर, महात्मा गांधी, स्वामी दयानंद स्वामी विवेकानंद आदि को प्रतिभा को इन पाठशालाओं ने ही तराशा और निखारा है। यदि पाठशालाएँ न होतीं तो विद्यार्थियों को बस्ते का बोझ न ढोना पड़ता शिक्षकों को पाठ्यक्रम पूर्ण कराने की चिंता न होती। हमारे समाज में व्यावसायिक संस्कृति का बोलबाला न होता। आज पैसे देकर विद्या खरीदने की क्रय-विक्रय पद्धति ने इस पुनीत क्षेत्र को दूषित कर दिया है। यदि पाठशालाएँ न होतीं तो विद्या मंदिर जैसे पवित्र क्षेत्र को भ्रष्टाचार का सामना न करना पड़ता। 

       यदि शिक्षा मधुर जल है, तो पाठशालाएँ सरोवर हैं। मनुष्य को अपनी ज्ञान की प्यास बुझाने के लिए पाठशालाओं की सदा आवश्यकता रहेगी।

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