अस्पताल में एक घंटा
पिछले रविवार को मैं अपने एक मित्र को देखने अस्पताल गया था। वह मोटर दुर्घटना में घायल हो गया था। दुर्घटना के कारण उसे महात्मा गांधी अस्पताल में भर्ती कराया गया था। अस्पताल में मरीजों को देखने जाने का समय शाम के 4 से 7 बजे का था। दुर्घटना की खबर से मुझे बहुत चिंता हो रही थी। मैं उसके लिए अपने साथ कुछ फल भी ले गया था। महात्मा गांधी अस्पताल की इमारत विशाल और स्वच्छ थी। ऊपरवाले हिस्से में बड़े-बड़े अक्षरों में अस्पताल का नाम लिखा हुआ था। मैंने अस्पताल में प्रवेश किया तो सामने ही पूछताछ कक्ष दिखाई दिया। पूछताछ करने के बाद मैं अपने मित्र के कमरे में पहुँचा। मेरे मित्र के माता-पिता भी वहाँ बैठे हुए थे। कमरा काफी बड़ा था। उसमें प्रकाश और हवा को समुचित व्यवस्था थी। सौभाग्य से मेरे मित्र को गंभीर चोट नहीं आई थी। मैंने उससे कुछ देर बातें कीं। उसे साथ लाए हुए फल दिए। उसके शीघ्र स्वस्थ होने की कामना कर मैं कमरे से बाहर आ गया। अस्पताल में भिन्न-भिन्न प्रकार के कई वार्ड थे। कोई किसी दुर्घटना में घायल हुआ था। कोई अग्निकांड में जल गया था, तो कोई किसी अन्य बीमारी का शिकार था। किसी को आक्सीजन दिया जा रहा था। किसी को ग्लूकोज तो किसी को खून चढ़ाया जा रहा था। भिन्न-भिन्न प्रकार के रोगियों को देखकर मेरा दिल भर आया।
डॉक्टरों और परिचारिकाओं की दौड़-धूप देखने लायक थी। उनके चेहरों पर कर्तव्य पालन और सेवा के भाव थे। श्वेत गणवेशधारी परिचारिकाएँ तो साक्षात् दया की देवियाँ लग रही थीं। आपरेशन थियेटर के बाहर मरीजों के संबंधियों को काफी भीड़ थी। सभी खामोश थे। वे अपने सगे-संबंधियों को आपरेशन के बाद थिएटर से सकुशल बाहर आने की राह देख रहे थे।
अस्पताल में मैंने जिंदगी का दूसरा ही रूप देखा। अस्पताल में देखे हुए दृश्यों पर विचार करते-करते मैं बाहर निकल आया।
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